Sunday, April 14, 2024

Two worlds

 Between two worlds ,I stand transfixed

All emotions just got so mixed

Caught in the horns of dilemma I die

What is life! everyday is strife.


Should I listen to the harmonies more?

The sweet songs of peace sung galore

Or should I turn to the darkness of caves?

Drugs and violence and be their slave?


What is easy what should I choose?

To take decisions ,education I will use,

Happiness I want like everyone else

If only I could catch life and its pulse.


My heart beats and cries for solution,

Will you help me and lead to resolution?

Did anyone teach you how to concentrate ? A talk for students.#education...

Wednesday, January 17, 2024

Suno Kahani Ep-25 Guru Gobind Singh #gurugobindsinghji #gurugobind

https://youtu.be/RNaErnDQ3vg?si=jX92K7Yv5EONC6v-

On this 17th day of Jan'24 , which happens to be the Prakashotsav of the great Guru Govind Singh, whose fortitude and indomitable spirit gave hard time to Aurangzeb and who sacrificed his four sons on the alter of dignity for his dharma, here is his story for the sons and daughters of Bharat.

Tuesday, November 21, 2023

 

A teen's pain


They want me to be a hero who can live their dream

My peers look at me ,their eyes fill of gleam.

I hear the success stories of friends who are so bright


These stories make me puny and fill my heart with fright.

I love my parents dear,I love my mentors more,


If Only love could work and make better my score

Shiv:The inner consciousness

 




















Tuesday, July 5, 2022

पाती प्रभु को इक प्रेम भरी - सुनीता राजीव

  

 





अनपढ़ थे अंगूठा छाप थे हम

पढ़ पढ़ कर इतने ज्ञानी  हुए

नापी धरती चीरा वो गगन

 गणितज्ञ बने विज्ञानी हुए ,

 

पर ला पटका हमें वहीँ जहाँ

से हमने शुरू की यात्रा थी

ऑफिस में दैनिक हाजरी तो

लगी आखिर उसी अंगूठे की I

 

कहते हैं , तुम्हें हंसाना हो

 तो योजना बरसों की बुन लो

दुनियां को कैसे चलाना है

 इस भ्रम के बुलबुले को भर लो ,

 

तरक्की के सोपानों पे

थे हम चढ़ , मद में झूम रहे

हर शै है बस में सोच के ये ,

शक्तिमानों से कद में बढे I

 

ये धरती अपनी ज्यों हस्तिनापुर

साम्राज्य हमारा त्रिभुवन है

बन भीष्म ये हम तो समझते थे

अभिमान हमारा अक्षुण्ण है I

 

बस एक शिखंडी करोना का

 भेजा , और सब भ्रम भुला दिया

अस्त्र शास्त्र और औषध का

सारा भ्रम मानो मिटा दिया !

 

 

तुम पीड़ित थे जाना हमने

ये राज़ भूकम्पों  ने भी कहा

तुम रोये जब आंसू भर भर

सागर तब  ही सुनामी बना

 

पर हम तो धृष्ट सी जाति  हैं

जो अपनी डाल  ही काटते है

जो पोषण देती धरा उसे

रौंद रौंद  सुख पाते हैं।

 

तुमने ये किया आघात कड़ा

और सारे नियम दोहरा दिए

जीवन झाड़ा किसी धुल के सम

पर प्रकृति  के रंग लौटा दिए 

 

पर तुमने ही ये ह्रदय दिया

तुमसे ही जीवन पाया है

हर भोर भास्करित करते तुम

मन अभी नहीं कुम्हलाया है।

 

रात के काजल भरे नयन

 हर सुबह तुम्हीं मुंदवाते  हो

हर पतझड़ के पन्नों पर तुम

वसंत के सुर भी सजाते हो

 

थे विषपायी मत भूलो शिव

ये कंठ है नील हलाहल से

ये विष भी पान करो अब शिव

सृष्टि है विचलती क्रंदन से !

 

ना जीवन का संहार करो

निज कृपा की अब बौछार करो

अहिल्या सम हम मूक खड़े

बन राम, के अब उद्धार करो।

Monday, June 27, 2022

 






एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?

रुकना चाह कर भी, हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?


दिन पिघलता जाता है जलती हुई बाती की तरह 

रात सरक जाती है तन से किसी चादर की तरह 

दिल में धड़कन है मगर नब्ज़ फिर भी सुन्न है क्यों? 

लाखों बातें हैं ज़हन में ,ज़ुबाँ  फिर गुम है क्यों ?


एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?

रुकना चाह कर भी , हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?


लम्हा लम्हा चुरा लेता है दिल की धड़कन को 

जाने किस डोर से बाँधूँ मैं भटकते मन को 

कतरा कतरा बिखरता जाता है वजूद मेरा 

कौन से धागों से सिलूं मैंअपने जीवन को ?


एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?

रुकना चाह कर भी , हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?


थाम के तितली सा उड़ता समय मैं रख पाता 

कल को जिया नहीं पर आज को तो जी पाता, 

सूना सूना सा जो वीराना भरा है मन में 

उस सेहरा  में  कहीं फूल इक खिला पाता !


एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?

रुकना चाह कर भी, हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?


साये के जैसे बड़ा कद है मेरे ख़्वाबों का 

इक बयाबां है कुछ अनकही सी बातों का 

ख्वाबों के हुस्न में हो रात की रानी जैसे 

खो गया है कहीं सवाल सब जवाबों का !


 एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?

रुकना चाह कर भी, हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?


हर नया दिन किसी सुरंग सा क्यों लगता है ?

किसी शीशे पे पड़ी बूँद सा फिसलता है,

भीगी सड़कों पे नंगे पाँव दौड़ता है मन 

माँ के आँचल में छुप जाने को मचलता है !


एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?

रुकना चाह कर भी , हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?